“चिनवार” – मन्त्रेश्वर झा लिखित उपन्यास
मन्त्रेश्वर झा लिखित उपन्यास “चिनवार” पढ़लहूँ. सुन्दर उपन्यास थिक. आजुक मिथिलाक गामक जिनगी के प्रतिमूर्ति |
किछु पंक्ति अहि ठाम उद्धृत अछि:
“चारित्रिक दृढ़ता तकबाक लेल ग्रामीण परिवेश आ की शहरी परिवेश में विभेद करबाक आवश्यकता छैक की? हमरा बुझने बिना सरचानात्मक परिवर्तन के कोनो प्राचीन धरोहर आ कि मान्यता के यथावत अक्षुन्न नहिं राखल जा सकइए . घैल में बंद कए जल के पवित्र नहिं राखल जा सकइए. जे जल प्रवाहमान अछि – गंगाजल हो आ की नर्मदाक जल, सिह अपन पवित्रता के यत्र-तत्र प्रवाहित कए सकैत अछि.”
“अपना समाज में कोनो स्त्री ककरो लेल ने रुकैत अछि आ ने ककरो संग विवाह करबाक लेल आगाँ बढैत छैक.. सभ किछु पुरुषे करैत अछि..विवाह करैत अछि, स्वीकार करैत अछि – त्यागि देत अछि.. जे मोन होइत छैक से करैत अछि.. पुरुषे आगाँ बढैत छैक नरनाथ बाबू.. स्त्री त ठामक – ठाम रही जाइत अछि…|”
“लीलावती जवान भ गेल रहथि| देह कसमसाय लागल रहनी. आंखि उत्तेजक भ गेल रहन्हि| चलथि त जेना नृत्यांगना डेग उठाबैत हो| ककरो दिस ताकथि त लागैत जेना साक्षात उर्वशी आमंत्रण द रहल होइक| बाजथि त जेना कोयली पंचम स्वर में गाबि रहल होइक| छोटछीन कदकाठी, पिंडश्याम वर्ण, पैघ-पैघ लतरल केश| क्यों मजाक करनी त गाल लाल भ जाईन| एहन लगैक जेना ओ कामदेवक सहचरी होथि | जवानी होइते छैक एहने| बड्ड मारुख | ककरा कखन लपेटि लेत से कहब कठिन|’
“कामांध भए जखन देवतो लोकनिक मतिभ्रम भए जाइत छन्हि तखन चुल्हाई त गामक खेलायल लोक रहथि| घाट घाटक पानी पीने, कतोक राहरिक खेत आ कुसियारक खेत धन्गने रहथि चुल्हाई अपन जवानी में|”
“हरनाथ रोज लुटाई दास आ पाठक जी के ओहिठाम जाय दरबार लगाबय लगलाह जाहि सन जल्दी सँ जल्दी हुनकर भिनाऊज भ जाईन | खेती बारीक सभटा काज करथु ओ आ ओही पर अधिकार देखाबथु नरनाथ आ हुनकर बाप महनाथ से हुनका पसिन्न नहिं रहन्हि| ………… लुटाई दास के अभ्यास रहन्हि जे अनाकर कोनो काज जतेक काल धरि अनठा सकी से अनठाबी”
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